માનગઢ ધામનો ઈતિહાસ અને તેનું મહત્વ

17 नवंबर 1913 – जब मानगढ़ धाम में 1500 भील आदिवासियों ने खुद को कुर्बान किया था !

हमारे देश में जलियांवाला बाग नरसंहार को तो याद किया जाता है लेकिन उससे भी पहले हुए भील आदिवासियों के कत्लेआम का जिक्र ना ही इतिहास की किताबों में मिलता है और ना ही नेताओं के भाषणों में। जलियांवाला बाग नरसंहार से 6 साल पहले 17 नवंबर 1913 को आज ही के दिन राजस्थान-गुजरात की सीमा पर बसे बांसवाड़ा जिले में अंग्रेजों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दी थी। अंग्रेजों ने यहां लगभग 1500 भील आदिवासियों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया था।


मानगढ़ की पहाड़ी उस दिन खून से लाल हो गई थी। भील आदिवासियों के खून से मानगढ़ की मिट्टी सींची गई थी। आज लोग इसे ‘मानगढ़ धाम’ के नाम से जानते हैं। हर साल आज के दिन यहां हजारों लोग इकट्ठा होते हैं, लोगों की मांग है कि इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाए लेकिन आज तक उनकी मांग को नहीं सुना गया।

भील आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ हल्ला बोल रखा था। लंबाड़ा (बंजारा समाज) से आने वाले महान गोविंद गुरु की अगुवाई में भील आदिवासियों ने किसी भी तरह के जुल्म को सहने से इनकार कर दिया था। अंग्रेजों के अलावा इन्होंने स्थानीय रजवाड़ों के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया जो इन्हें जानवरों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर कर रहे थे। 


भीलों ने बेगारी से मना कर दिया था। गोविंद गुरु की अगुवाई में मानगढ़ धाम पर हजारों भील 17 नवंबर 1913 को एकजुट हुए थे लेकिन किसी ने अफवाह फैला दी कि भील रजवाड़ों की रियासतों पर कब्ज़ा करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। रजवाड़ों ने अंग्रेजों पर दबाव डालकर सेना बुला ली और फिर अंग्रेजी सेना ने एक के बाद एक करीब 1500 भील आदिवासियों की लाशें बिछा दीं।



आज़ादी की लड़ाई में भील आदिवासियों ने अपना सबकुछ कुर्बान कर दिया लेकिन फिर भी उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल पाया।

Post a Comment

Previous Post Next Post